भारतीय ओबीसी महासभा का क्या अर्थ है?

भारतीय ओबीसी महासभा संगठन के नाम का संक्षिप्त रूप है| भारतीय ओबीसी महासभा के संक्षिप्त रूप का यह विस्तार है जिससे संगठन के संपूर्ण नाम का पता चलता है| जैसे ( भारतीय ओबीसी महासभा) यहॉ बैकवर्ड शब्द ओ.बी.सी. के लिए समान रूप से प्रयुक्त किया गया है और इसका अर्थ है ओ.बी.सी. की सभी जातियॉ पिछड़ी हैं| इसका अर्थ यह नहीं है कि ओ.बी.सी. समान रूप से पिछड़ी जातियॉ हैं| यह जातियॉ समान रूप से पिछड़ी नहीं है| कुछ ज्यादा पिछड़ी हैं सभी पिछड़ी,अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एक वर्ग है, यह सामान्य वर्ग यानी जनरल में ही सम्मिलित होता है पर इसमें आने वाली जातियाँ बेरोजगारी , गरीबी और शिक्षा के रूप में पिछड़ी होती हैं यह भी सामान्य वर्ग का भाग है जो जातियाँ वर्गीकृत करने के लिए भारत सरकार द्वारा प्रयुक्त एक सामूहिक शब्द है। इसीलिए इन जातियों को बैकवर्ड (पिछड़ी) ही कहा गया है| जहॉ तक अल्पसंख्यकों का सवाल है, हम ओ.बी.सी. से धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यकों को इस दायरे में मानते हैं, यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि, ऐतिहासिक काल में ओ.बी.सी. से ही अल्पसंख्यकों का वर्ग बना है, जिसमें मुस्लिम, ईसाई, बोद्ध, सिख समुदाय आते हैं, इस तरह से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ी वर्ग और उनसे धर्म परिवर्तित अल्पसंख्यक को ही हम संगठित करना चाहते हैं|

समस्यात्मक दृष्टिकोण

हम पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक को ही क्यों संगठित करना चाहते हैं, उसके वास्तविक कारण उपलब्ध हैं| समस्यात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो आज यह वर्ग सबसे ज्यादा समस्याग्रस्त है| उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और शैक्षणिक समस्यायें गंभीरतम रूप में प्रकट हो चुकी हैं और अब यह समस्यायें विवाद का विषय नहीं रही| भारत सरकार के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात को मान्यता प्रदान की है| के लिए स्वयं भारत सरकार ने अनुसूचित जाति जनजाति आयोग की स्थापना की और उसे संवैधानिक स्तर प्रदान किया| इससे इस वर्ग की विशेष समस्याओं की मान्यता, स्वयं भारत सरकार मानती है, यह इसका प्रमाण है| स्वयं भारत सरकार ने के अलावा जिन जातियों को शासन और प्रशासन में प्रतिनिधित्व को सुरक्षित करने के लिए मंडल कमीशन की नियुक्ति की और इस कमीशन की रिपोर्ट को मान्यता प्रदान की है जिसको १६ नवम्बर १९९२ को भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी इस बात को मान्यता दी है| भारत सरकार के माध्यम से और विभिन्न राज्य सरकारों के माध्यम से अल्पसंख्यकों के हक और अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए विशेष अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया है, जिसके माध्यम से इनकी समस्याओं का निदान किया जायेगा| आयोगों के गठित करने से अब इस बात में किसी तरह का विवाद नहीं बचा रहता है कि इनकी कुछ विशेष समस्याये हैं| यह समस्यायें सर्वमान्य हो चुकी हैं|

व्यवस्थात्मक दृष्टिकोण

व्यवस्थात्मक दृष्टिकोण से देखा जाय, तो , अल्पसंख्यक वर्ग इस देश की ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था से गंभीर रूप से पीड़ित हैं, इसलिये ज्योतिराव पुले, पेरियार रामासामी और डा. बाबासाहब आम्बेडकर ने अपने आंदोलन का लक्ष्य गैरबराबरी की समाज व्यवस्था में परिवर्तन करना रखा| इसलिए जो लोग इस व्यवस्था से पीड़ित हैं वही लोग व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में सक्रीय सहभागी हो सकते हैं, और यह स्वाभाविक भी है| जिनको इस व्यवस्था से लाभ होता है उनको संगठित करने का कोई तर्क नहीं है| इसलिए गैरबराबरी की व्यवस्था को बदलने के लिए जो लोग इस व्यवस्था से पीडिात हैं, उनको ही संगठित करना होगा| इसलिए , पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग को ही संगठित किया जा रहा है|

ऐतिहासिक दृष्टिकोण

२१ मई २००१ के टाईम्स ऑफ़ इण्डिया में खबर छपी कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भारतीय नहीं है, विदेशी है| यह शोध अमेरिका के वाशिंगटन में उटाह विश्वविद्यालय है और उस उटाह विश्वविद्यालय की बायो टेक्नोलाजी डिपार्टमेंट के हेड, मायकल बामसाद ने डी.एन.ए के आधार पर यह शोध किया| यह शोध करने के लिए उन्होंने Anthropological survey of India और मद्रास विश्वविद्यालय, विशाखापटनम विश्वविद्यालय के बायो टेक्नोलाजी डिपार्टमेंट के लोगों के सहयोग से यह शोध करने का काम किया| इसलिए यह शोध पूर्वाग्रह से मुक्त है, यह बात पूर्णत: सिध्द हो गयी है| डी.एन.ए के आधार पर यह शोध निर्विवाद है| इस शोध को ब्राह्मणों ने विरोध न करते हुए इसको मान्यता दी| बल्कि कुछ ब्राह्मणों ने इसके आधार पर विदेशों में अपनी जड़ों को भी ढूॅढाना शुरू कर दिया उसमें प्रमुख नाम पूना के ब्राह्मण डा. जय दीक्षित का है| इस शोध के अनुसार रुस में जो काला सागर के पास का क्षेत्र है| उस युरेशियन विभाग में पाये जाने वाले लोगों का डी.एन.ए और भारत में रहने वाले ब्राह्मण लोगों का डी.एन.ए ९९.९९ प्रतिशत मिल गया है| इस शोध की वजह से भारत का जो लिखित इतिहास है उसका फिर से पुनर्लेखन करना जरुरी है| पुनर्लेखन किए बगैर अब इतिहास को नहीं माना जा सकता| इसलिए हमने इतिहास के पुनर्लेखन का निर्णय किया है| उपरोक्त निर्णय के अनुसार अगर फिर से इतिहास लिखा जाय तो ये लिखा जा सकता है कि युरेशिया में रहने वाले लोगों ने आक्रमण करने के मकसद से भारत में प्रवेश किया| कुछ लोग कहते हैं वे लोग पशुपालन और खेती करने आये थे| परन्तु यह बात डी.एन.ए की खोज ने झूठी सिध्द कर दी| माइटोकॉन्ड्रियल डी.एन.ए के अनुसार ब्राह्मणों के घरों में पायी जाने वाली महिलाऍ भी मूलनिवासी हैं| इससे सिध्द होता है कि आक्रमण के उद्देश से आए हुए युरेशियन अपने साथ में महिलाऍ नहीं लाए थे| यह बात सिध्द होती है| जब वे अपने साथ महिलाओं को नहीं लाए इस आधार पर यह सिध्द हो गया कि युरेशियन लोगों का मकसद आक्रमण करना था और भारत के मूलनिवासियों को परास्त करना था| आक्रमणकारी युरेशियन आक्रमण के मकसद से भारत में आये मगर आमने-सामने की लड़ाई में परास्त करने में कामयाब नहीं हुए| इसलिए उन्होंने धोखाधडी, विश्वासघात, अविश्वासस, लालच, विभाजित करना, साम, दाम, दंड, भेद की नीति का सहारा लिया और उसके आधार पर मूलनिवासियों को परास्त करने में कामयाबी हासिल की| ब्राह्मणों के धर्मग्रन्थों में धोखाधडी विश्वासघात के ढेर सारे प्रमाण उपलब्ध है| परास्त किए हुए लोगों को दीर्घकाल तक गुलाम कैसे बनाये रखा जाय यह समस्या आक्रमणकारी युरेशियन के सामने आई और इस तरह से उन्होंने यहॉ के मूलनिवासियों को गुलाम बनाने के लिए वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया| ऐसा लगता है, बहुसंख्यक मूलनिवासियों को गुलाम बनाने के लिए और अपने आपको सबसे ऊपर रखने के लिए वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया होगा और मूलनिवासियों के ही लड़ाई किस्म के लोगों को क्षत्रिय का दर्जा देकर अपने से नीचा रखा होगा और व्यापारिक प्रवृत्ति के लोगों को वैश्य का दर्जा दिया होगा और बाकी बहुसंख्यक लोगों को शूद्र बनाकर गुलाम बना देने के लिए वर्ण व्यवस्था का निर्माण किया होगा| परन्तु गणसंस्था के लोगों ने वर्ण संस्था की निर्मिती को जो गुलाम बनाने वाली व्यवस्था है, उसे अमान्य करना शुरू कर दिया होगा और इससे संघर्ष उत्पन्न हुआ| बाद में लिच्छवी गण के महावीर ने इसका नेत्रत्व किया और शाक्य गण के राजकुमार गौतम बुद्ध ने इस संघर्ष का नेत्रत्व किया होगा, ऐसा दिखाई देता है| इस संघर्ष में सबसे बड़ा रोल बुद्ध ने निभाया| उन्होंने वर्ण व्यवस्था जिस वैचारिक आधार पर खडी की गयी थी, उस वैचारिक आधार को ही चुनौती दी| इस चुनौती के लिए जिस विचार धारा का विकास बुध्द ने किया वह विचारधारा बुद्ध की विचारधारा मानी जाती है और यह त्रिपिटकों के पाली साहित्य में उपलब्ध है| बुद्ध के वर्ण व्यवस्था विरोधी अर्थात ब्राह्मण धर्म विरोधी आंदोलन ने प्राचीन भारत में क्रांति कीब इस क्रांति का बहुत बड़ा परिणाम निकला| परिणाम नं. १) जिन मूलनिवासियों को युरेशियन ब्राह्मणों ने गुलाम बनाने का षड्यंत्र किया था वह गुलाम बनाने का षड्यंत्र शूद्र के नाम पर किया गया था| शूद्र वर्ण अधिकार वंचित था और जो अधिकार वंचित होता है वह गुलाम होता है| इस तरह से यह गुलाम बनाने का षड्यंत्र था| उन्हीं गुलाम प्रजा से राजा निर्माण हुए और मौर्य साम्राज्य उसी प्रजा से निकला हुआ महान साम्राज्य है| जिसके चन्द्रगुप्त और अशोक जैसे महान सम्राट हुए| ऐसे कहा जाता है कि मौर्य नागवंशी लोग थे| २) वर्ण व्यवस्था में समस्त स्त्रियों को शूद्र घोषित किया था| अर्थात गुलाम घोषित किया था| उन स्त्रियों को इस क्रांति ने आजाद घोषित कर दिया| और माना गया कि स्त्रियों की आजादी के बगैर समस्त समाज को आजाद नहीं किया जा सकता| ३) बुध्द कोई भी बात तर्क और दलील के बगैर नहीं करते थे और इसलिए ज्ञान और विज्ञान का विकास हुआ| तर्क और दलील के बाद प्रयोगशाला में ज्ञान का परिक्षण होने लगा| इसकी वजह से नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे महान विश्वविद्यालयों का निर्माण हुआ|

प्रतिक्रांति की तैयारी

युरेशियन ब्राह्मणों ने इस क्रांति को मानने से इन्कार कर दिया| उन्होंने फिर से अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए प्रतिक्रांति की तैयारी शुरू कर दी है| युरेशियन ब्राह्मणों की भिक्षुसंघ में घुसपैठ प्रतिक्रांति की पूर्व तैयारी थी| इस घुसपैठ से उन्होंने भिक्षुसंघ को अंदर से विभाजित किया| बुध्द की विचारधारा में मिलावट किया और लोगों में भ्रांतियॉ फैलाई| बुद्धिझम को राजाश्रय मिला हुआ था इसलिए मौर्य राज्य व्यवस्था में घुसपैठ की और मौर्य राज्य व्यवस्था को भी अंदर से खोखला किया| इसी परिस्थितियों का फायदा उठाकर पुश्यमित्र शुंग ने प्रतिक्रांति की| इस प्रतिक्रांति द्वारा मौर्य साम्राज्य का आखिरी सम्राट ब्रहद्रथ की हत्या कर दी| प्रतिक्रांति के महत्वपूर्ण अलग-अलग दो परिणाम निकले बुद्धिझम का राजाश्रय समाप्त कर दिया गया| परिणाम नं. 1. जाति व्यवस्था का निर्माण 2. क्रमिक असमानता का निर्माण अस्पृश्यता का निर्माण आदिवासियों का सेग्रीगेशन (अलगीकरण) स्त्रीदास्य और ओबीसी अर्थात शूद्रों का ब्राह्मण धर्म से समझैता इसका यह परिणाम हुआ कि प्रतिक्रांति के बाद मूलनिवासी कई समूहों में विभाजित हो गए| आज की दृष्टी से जिन मूलनिवासियों ने ब्राह्मण धर्म को मानना स्वीकार किया उन लोगों को ब्राहमणों ने शूद्रों का दर्जा दिया| पुराणों के द्वारा घोषणा की कि ब्राह्मणों के बाद बाकी सभी शूद्र है| जिन मूलनिवासियों ने ब्राह्मण धर्म मानने से इन्कार कर दिया उनको अछूत घोषित कर दिया गया| जिन मूलनिवासियों ने समझैता नहीं किया परन्तु जंगलों में रहे वे आदिवासी कहलाए| जो अपने जीवन निर्वाह के लिए अपराध करते रहे उनको क्रिमिनल टाईब्स घोषित कर दिया गया| इस तरह की बुध्दिस्ट प्रजा जो वास्तव में मूलनिवासी प्रजा थी उसको आज की दृष्टी से चार समूह में विभाजित करने में कामयाब हो गए| यह विभाजित प्रजा पहले के बुध्दिस्ट और मूलनिवासी लोग थे| बाद में मुसलमान राजा भारत में आये उनके समय में एससी, एसटी, ओबीसी, क्रिमिनल टाईब्स का धर्मपरिवर्तन हुआ मुसलमान हुए| अंग्रेज आने के बाद इसाई बने| इस तरह से भारत में मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बुध्दिस्ट ये सभी मूलनिवासी लोग हैं|
शिक्षित वर्ग को ही क्यों संगठित कर रहे हैं?
हम शिक्षित वर्ग को ही संगठित कर रहे हैं, यह बात निश्‍चित रूप से विचारणीय है| इसके कई कारण बताये जा सकते हैं| मगर हम यहॉ कुछ महत्वपूर्ण कारणों की चर्चा करेंगे| शिक्षित वर्ग ही बुद्धिजीवी वर्ग होता है और बुद्धिजीवी वर्ग की तीन विशेषताऍ होती है| शिक्षित वर्ग को जीवन के नये दृष्टिकोण का पता चलता है और इस दृष्टिकोण के तहत यह वर्ग अपने वर्तमान जीवन और स्तर की समीक्षा करता है, जिससे उसे अपने स्तर का पता चलता है| अगर उसे जीवन स्तर घटिया नजर आये तो उसे बदलने के लिये सोचता है और ऐसी व्यवस्था के सपने देखता है, जिसमें जीवन स्तर घटिया न हो, इसलिए बुद्धिजीवी वर्ग नये समाज और व्यवस्था का सपना देखता है| घटिया स्तर प्रदान करने वाली व्यवस्था कैसे निर्माण हुई, उसकी निर्मिती के क्या प्रमुख कारण हैं, वह किसके हित में कार्यरत है, उसी के हित में क्यों कार्यरत है, इन सब बातों का विश्‍लेषण करने के लिए एक विशिष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसे समीक्षाशास्त्र कहते हैं, इस समीक्षाशास्त्र का निर्माण भी बुद्धिजीवी वर्ग करता है| जिस व्यवस्था का बुद्धिजीवी वर्ग सपना देखता है, उसे स्थापित करने के लिए और सड़ी गली व्यवस्था को बदलने के लिए संगठन का निर्माण भी बुद्धिजीवी वर्ग ही करता है क्योंकि वह जानता है कि साध्य को प्राप्त करने के लिए साधन की आवश्यकता होती है| इस तरह से वह साधन की महत्ता को जानता है| यह तीन विशेषताऍ बुद्धिजीवी वर्ग की होती है| यही कारण है कि राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले और बाबासाहब डा. आम्बेडकर ने और पिछड़े वर्ग से बुद्धिजीवी वर्ग की निर्मिती को प्राथमिकता दी| जो आंदोलन राष्ट्रपिता फुले ने १८४८ से १८९० तक चलाया और जो आंदोलन १९१६ से १९५६ तक बाबासाहब डा. आम्बेडकर ने चलाया, उस आंदोलन से आज हम देखते हैं कि बुद्धिजीवी वर्ग का निर्माण हुआ है| अत: बुद्धिजीवी वर्ग की इन विशेषताओं की वजह से ही इस वर्ग को संगठित कर रहे हैं|

बुद्धिजीवी वर्ग की निर्मिती का उद्देश

राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले और बाबासाहब डा. आम्बेडकर ने बुद्धिजीवी वर्ग की निर्मिती को प्राथमिकता क्यों दी? क्योंकि वह जानते थे कि जिस मनुवादी (ब्राह्मणवादी) व्यवस्था को बदलना है, उस व्यवस्था को बदलने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग का निर्माण आवश्यक है| बुद्धिजीवी वर्ग ही व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन को चला सकता है| इसलिए उसकी निर्मिती को प्राथमिकता दी गई| व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन चलाने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग महत्वपूर्ण साधन है और इस साधन की निर्मिती करना व्यवस्था परिवर्तन के लिए आवश्यक है, यह बात ज्योतिराव फुले और बाबासाहब डा. आम्बेडकर जानते थे| इसी उद्देश की पूर्ति के लिए बुद्धिजीवी वर्ग के निर्माण को प्राथमिकता दी गयी और यही उद्देश रखा गया|

क्या बुद्धिजीवी वर्ग यह कार्य कर रहा है?

क्या , पिछड़ा वर्ग से निर्मित बुद्धिजीवी वर्ग अपने निर्माताओं की इच्छा के अनुप कार्यरत हैं? इसकी समीक्षा करने के बाद पता चलता है कि यह वर्ग ऐसे किसी कार्य में सक्रीय रूप से भागीदार दिखाई नहीं देता| इतना ही नहीं, जिस समाज से यह वर्ग आया है, उस समाज को भी यह उपेक्षित भाव से देखता है और उससे दूर रहता है| यह अनुभव अपने जीवन काल के उारार्ध में बाबासाहब डा. आम्बेडकर को भी हुआ और उन्होंने बड़े ही दुखी मन से १८ मार्च १९५६ को आगरा के रामलीला ग्राउंड में कहा कि, “मुझे पढो लिखे लोगों ने धोखा दिया है, मैं सोचता था कि पढालिखकर यह वर्ग अपने समाज की सेवा करेगा, मगर मैं देख रहा हूँ कि मेरे इर्द-गिर्द क्लर्कों की भीड़ इकट्ठा हुई हैं, जो अपना ही पेट पालने में लगी हुई हैं|” यह आहत भावना इस बात का सबूत है कि पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी वर्ग अपने समाज से और उसके स्नेहभाव से दूर-दूर जा रहा है| यही वजह है कि गॉवों में रहने वाले लोगों के साथ अन्याय, अत्याचार और भेदभाव का व्यवहार बढ गया है| जिस कार्य के लिए राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले और बाबासाहब डा. आम्बेडकर ने इस वर्ग का निर्माण किया था, उस कार्य में यह वर्ग दिखाई नहीं देता| जिस वर्ग से नेतृत्व की अपेक्षा की गई थी, वह वर्ग सरकार का नौकर बनकर रह गया है आधे अधूरे और कच्चे लोगों के हाथों में आंदोलन की बागडोर छोड दी गई है| इसका नतीजा हम देखते हैं कि राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले और बाबासाहब डा. आम्बेडकर का आंदोलन आज चलता हुआ नजर नहीं आता|

बुद्धिजीवी वर्ग को क्या करना चाहिए?

बुद्धिजीवी वर्ग को वही कार्य करना चाहिए, जिसकी उसके निर्माताओं ने उनसे अपेक्षा की थी| देशभर में गैर बराबरी की व्यवस्था चल रही है| जब तक उस व्यवस्था में परिवर्तन नहीं होता, तब तक , पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक वर्ग के लोग व्यवस्था में पिसते रहेंगे और उनके साथ हर तरह का भेदभाव होता रहेगा| इसलिए बुद्धिजीवी वर्ग को व्यवस्था परिवर्तन के लिए संगठित होना चाहिए, संगठित करना चाहिए और एक प्रभावी आंदोलन बनाना चाहिए| इस कार्य को करने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग को सामने आना चाहिए| अपने निर्माताओं की अपेक्षा और बुद्धिजीवी वर्ग की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए भारतीय ओबीसी महासभा उपरोक्त कार्य को अंजाम देने के लिए बुद्धिजीवी वर्ग को संगठित करने का प्रयास कर रहा है|

उद्देश – व्यवस्था परिवर्तन के लिए

इस प्रयास में छ सगलतायें प्राप्त हुई| मगर वह व्यवस्था परिवर्तन के लिए पर्याप्त नहीं है| इसलिए यह प्रयास ज्यादा गति से चलाने की आवश्यकता है| इस प्रयास को ज्यादा सुचारु रुप से चलाने के लिए और व्यवस्था परिवर्तन के उद्देश को पूर्ण करने के लिए भारतीय ओबीसी महासभा ने अपने सामने कुछ महत्वपूर्ण उद्देश रखे हैं| बुद्धिजीवी वर्ग में सामाजिक ऋण से मुक्त होने की भावना का निर्माण करना| मूलनिवासी बहुजन समाज (, पिछड़ा वर्ग और इन्हीं में से धर्मपरिवर्तित अल्पसंख्यक) की गैर राजनीतिक जड़ों को लगाना और मजबूत करना| लक्ष्य भेदी और लक्ष्यप्रेरित जाग्रति का निर्माण करना| राष्ट्रपिता फुले, पेरियार रामासामी एवं बाबासाहब डा. आम्बेडकर के विचारों का प्रचार-प्रसार करना| ब्राह्मणवादी समाज व्यवस्था से कम और अधिक पीड़ित ६,००० जातियों में जाग्रति लाकर, उनमें बंधुभाव पैदा करना और उन जातियों को आपस में जोडना| मूलनिवासी बहुजन समाज का आंदोलन आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनसे ही बुध्दी, पैसा और हुनर का निर्माण करना| नेतृत्वहीन समाज में नेतृत्व निर्माण करना और उसकी व्यवस्था करना| दिशाहीन समाज को दिशा देना| पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का निर्माण करना और उनकी व्यवस्था करना| उपरलिखित उद्देश्यों की पूर्ति पर ही व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन की सफलता निर्भर करती है, इस बात को समझाना जरुरी है|

भारतीय ओबीसी महासभा की मर्यादा

भारतीय ओबीसी महासभा शिक्षित सरकारी, गैरसरकारी कर्मचारियों का संगठन है| इसलिए भारतीय ओबीसी महासभा के सदस्य किसी राजनीतिक पार्टी में सक्रीय सहभागी नहीं हो सकते और होने से सेवाशर्ती नियमों का उल्लंघन होता है| इसलिए भारतीय ओबीसी महासभा को गैर राजनीतिक (Non-Political) और असंघर्षात्मक (Non-Agitational) रखा गया है| इसके साथ-साथ ६,००० जातियों का संगठन बनाने के उद्देश को ध्यान में रखकर रणनीतिक दृष्टी से इसे धर्मनिरपेक्ष (Non-Religious) रखा गया है|

भारतीय ओबीसी महासभा – व्यवस्था परिवर्तन का वाहक

राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले, पेरियार रामासामी नायकर और बाबासाहब डा. आम्बेडकर ने अपने आंदोलन का लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन रखा था| व्यवस्था परिवर्तन का लक्ष्य अभी तक पूर्ण नहीं हुआ है| उपरोक महानुभाव जीवनभर व्यवस्था परिवर्तन के लिए लड़ते रहे और कुछ सफलतायें भी उन्होंने हासिल की| मगर अभी तक व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन की तर्कसंगत समाप्ति नहीं हुई है| इसलिए भारतीय ओबीसी महासभा, अपने आपको उन महानुभावों के अपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समर्पित करती है जिसमें व्यवस्था परिवर्तन मुख्य लक्ष्य होगा| व्यवस्था परिवर्तन का अर्थ संक्षिप्त में समाज व्यवस्था की संरचना में मूलभूत परिवर्तन (ructural change in the social Syem) करना है| इसलिए भारतीय ओबीसी महासभा कल्याणकारी कार्यों में (Welfare Activities)और धर्मार्थ कार्यों में भी (Charitable) संलग्न नहीं है क्योंकि वह साध्य नहीं हो सकते| साधन के तौर पर उचित समय पर आवश्यकता के अनुसार इनका उपयोग किया जा सकता है| ऐसा करते वक्त यह भी ध्यान में रखा जायेगा कि ऐसे कार्य से उद्देश पूर्ति में मदद मिलती है या नहीं|

व्यवस्था परिवर्तन – एक मिशन

व्यवस्था परिवर्तन की कोशिश हजारों सालों से हो रही है, मगर आज तक पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हो पायी| इसमें हजारों महान लोगों ने अपनी कुर्बानियॉ दी, शहीद हुए, मगर इस लक्ष्य को पूर्ण रुप से प्राप्त नहीं किया जा सका| इसलिए व्यवस्था परिवर्तन एक महान कार्य है, दुष्कर कार्य है| इसीलिए यह एक मिशन है और इस कार्य की पूर्ति के लिए कार्यरत कार्यकर्ता को ‘मिशनरी’ कहा जा सकता है| इस मिशन की पूर्ति के लिए, हजारों लाखों लोगों की आवश्यकता है, तब कहीं यह मिशन पूर्ण हो सकता है| जिन लोगों को राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले, पेरियार रामासामी और डा. बाबासाहब आम्बेडकर के आंदोलन से लाभ हुआ है, उनका यह प्रथम कर्त्तव्य है कि वह लोग इस कार्य को अंजाम देने के लिए स्वप्रेरणा से सामने आयें| हमारी यह आशा और अपेक्षा व्यर्थ नहीं जायेगी, ऐसी आशा के साथ यह निवेदन समाप्त करते हैं

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